धर्म के नाम पर अधर्म....दिनेश चौधरी

Artilce by-दिनेश चौधरी


हमारा देश उत्सवों का देश है। यहां उत्सव ही हमारे मन को ताजा करते हैं। हैं। ये उत्सव भगवान, माता, देवी,  देवताओं के नाम पर होते हैं, इसलिए शासन-सत्ता और आम नागरिक भी इन उत्सवों में सहयोग करते हैं। इसमें भक्ति भावना ही प्रधान होनी चाहिए लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हम जो उत्सव मना रहे हैं, उसमें भक्ति भावना की प्रधानता है? यह प्रश्न इसलिए उठता है कि अब हम उत्सवों में भी शान शौकत, दिखावा और पाखण्ड के मिश्रण करा रहे हैं। इन खचों की पूर्ति के लिए आयोजक-प्रयोजक खोजे जा रहे है। और इन उत्सवों में भी बैनर के रूप में बाजार प्रवेश कर रहा है।


इन उत्सवों में भी राजनीति प्रवेश कर रही है। इन उत्सवों में जो श्रद्धा भक्ति भावना का तत्व होना चाहिए, वह गायब हो रहा है। हम जिस भ्रष्टाचार और दुराचार की प्रतिदिन निंदा करते हैं, वे ही इन उत्सवों के अवसर पर खुलकर दिखाई देते हैं तो लगता है। हम धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे है, धर्म के नाम पर बेईमानी का बीजारोपण कर रहे हैं। कैसे हो रहा है अधर्म - यहां यह प्रश्न उठता है कि यह अधर्म कैसे हो रहा है? खुले आम तो दिखाई नहीं देता। अगर हमें दिखाई नहीं दे रहा तो हम आंख होते हुए भी अंधे हैं। हम विचार नहीं कर रहे। हम वर्षों से अपने उत्सवों में यह चोरी और सीनाजोरी कर रहे हैं और यह घोषणा करते हैं कि हिम्मत हो तो पकड़ो। हम ईंट से ईंट बजा देंगे। धर्म का मामला है, इसलिए यह चोरी चल रही है। राजनीति का इसमें प्रवेश है। तब क्या हम इसे धर्म कहेंगे। बेइमानी और धर्म का क्या कोई संबंध हो सकता है? यह भी प्रश्न है। और यह सब सारे देश में तब हो रहा है जब हम बिजली संकट से गुजर रहे हैं। देश में पर्याप्त बिजली नहीं है। बिजली की दर में बार-बार शुल्क वृद्धि की जा रही है। क्या यह बिजली चोरी देश प्रेम है। हम सरकारी माल को अपना माल माल कर अनाप शनाप उपयोग करेंगे तो फिर किस मानसि. कता से देश की उन्नति की बात करेंगे। अवैध अतिक्रमण - हमारे देश में सरकारी भूमि पर मन्दिर, मस्जिद बनाना सबसे आसान काम है। जगह-जगह मंदिर हम बना कर अतिक्रमण कर रहे हैं। सड़कों पर, चौराहों पर हम कब्जा करते हैं। एक पत्थर पर सिन्दूर रंगा और रख दिया। फिर धीरे-धीरे ओटला बना, दीवार बनी और छत डल गई। इस प्रकार धर्म और भगवान के नाम पर आज हजारों अतिक्रमण हो चुके हैं। सरकार व उसके अधिकारी चुप रहते हैं। धर्म का मामला है। जब सार्वजनिक योजनाओं और जन सुविधा में बाधा उपस्थित होती है और इन्हें हटाया जाना होता है तब बड़े-बड़े आन्दोलनों की धमकी दी जाती है। राजनीति प्रवेश कर जाती है। इन अतिक्रमणों में भी व्यक्तिगत स्वार्थ छिपा रहता है। चंदे का हिसाब नहीं होता :- ये चन्दे केवल उत्सव के लिए होते हैं। कोई विधिवत समिति तो होती नहीं। कोई कैश बुक नहीं होती। बाजार से एक चन्दे की बुक खरीदी और काटने लगे रसीद। जो खर्चे हुए, उसका भी व्यवस्थित हिसाब नहीं होता। कार्यक्रम समाप्त और चन्दे की याद समाप्त। तब वह तत्व जो चंदे को दबाव से वसूला करता है, शेष राशि से आनन्द मनाता है। यह केवल उत्सव के लिए ही नहीं, धार्मिक मन्दिरों के लिए भी सच है। मंदिर निर्माण होने के बाद कोई हिसाब नहीं होता, इसलिए चंदा वसूलना एक धंधा बन गया है। एक सज्जन एक ऑटो रिक्शा से आए और एक विशेष कार्य के लिए पांच सौ रूपए चंदे की मांग करने लगे। मैंने पचास रूपए दिए तो बोले-इससे ज्यादा तो आटो का किराया हो गया। इससे काम नहीं चलेगा। मैंने उनसे पूछा-इस पवित्रा सार्वजनिक कार्य के लिए आप आटो से क्यों पधारे, पैदल आ जाते। वे मुझे देख लेने का कह कर चले गए। इस प्रकार हम आज धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे हैं। हम खूब बिजली जलाएं पर वैधानिक रूप से कनेक्शन तो लें। माता के नाम पर बेईमानी पूर्ण उत्सव देश को हानि पहुंचाता है, नैतिक पतन करता है। धर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करता है। यह कैसी माता सेवा है? इसके अतिरिक्त इस उत्सव पर माता के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हमारे अन्दर प्रवेश करना चाहिए। आज हमारे घरों में माता का कितना सम्मान है, इसका चिन्तन करें। अपनी मां का आदर सम्मान न करें और नवरात्रों का भव्य आयोजन करें, यह तो तमाशा है। आज देश में मां बहनों के साथ छेड़छाड़ बलात्कार शीलभंग की जो घटनाएं हो रही हैं, वह एक चेतावनी हैं। हमारे लिए। जैसी हमारी मां बहन, वैसी ही सड़क पर चलने वाली हर महिला के प्रति जब हमारे भाव होंगे, तभी हम कह सकेंगे कि हमने मां की आरती श्रद्धा भक्ति से की।