न्यायपालिका की अवमानना...

 



Article by-(संदीप लाम्बा)


न्यायपालिका की अवमानना का सवाल न्यायपालिका की गरिमा से जुड़ा हुआ है। न्यायपालिका की गरिमा को बनाये रखना, उसमें वृद्धि करना हर भारतीय का कर्तव्य है पर यह गरिमा केवल पारदर्शिता और जवाबदेही से संभव है, अवमानना कानून से नहीं है। । न्यायाधीशों के संवैधानिक अधिक आरों की रक्षा करना तो आवश्यक है। किंतु न्यायाधीशों को स्वयं इस बात को समझना चाहिए कि देवता लोग भी असफल होते हैं। न्यायाधीश भी गलतियां करते हैं, हर समय निष्पक्ष नहीं होते, उनमें से हर एक दक्ष नहीं होता, उनकी भी स्मरण शक्ति सीमित होती है। वे भी बहुत सी बातें भूल जाते हैं। यह भी सही है कि बैंच बदलने और निर्णय सुरक्षित रखने से कई बार अन्याय होता है। न्यायाधीश भी पुराने दृष्टांतों के साथ पूर्वाग्रहों से भी ग्रसित हो सकते हैं। एक सक्रिय कई बार आवश्यकता से अधिक सक्रिय हो सकता है, अपनी सीमओं. " को लांघ सकता है, अनुचित हस्तक्षेप की प्रवृत्ति वाला हो सकता है। अपील, रिव्यू आदि के प्रावधान इन्हीं सब स्थितियों पर काबू रखने के लिए रखे गये हैं। वे भी नाकाफी हैं और केवल न्यायालय में विचाराधीन विवादों में कुछ प्रभावी होते हैं।


न्यायाधीश की गरिमा बहुत महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है। न्यायालय की पूरी तस्वीर, उसका तरीका व उसमें व्यक्त शारीरिक भाषा सभी कुछ गरिमामय होने चाहिए। यह गरिमा न्यायाधीशों द्वारा स्वयं स्थापित की जाती है, कृत्रिम तरीकों से, कानूनों से नहीं। न्यायाधीश का व्यक्तिगत व्यवहार गरिमामय और गरिमा को प्रोत्साहन देने वाला होना चाहिए। समय की पाबंदी रखने वाला न्यायाधीश, दूसरों की इज्जत करने वाला न्यायाधीश संयत रहने वाला न्यायाधीश, न्यायालयों की इज्जत बढ़ाता है। न्यायालयों के निर्णयों, उनके तरीकों की आलोचना अवमानना नहीं होती। अवमानना के लिए दण्ड देने का प्रावधान न्यायालय के सम्मान को नहीं बढ़ाता। ये प्रावधान ज्यादातर न्यायाधीश के 'मूड' पर बिना अधिक सोच विचार के काम में लाये जाते हैं। और प्रक्रिया भी बहुत अच्छी नहीं होती। अवमानना का जो कानून 1765 में इंग्लैण्ड में लाया गया था वह बहुत कम लागू हुआ, उसका औचित्य कभी सिद्ध नहीं हुआ। भारत में यह कानून एक अंधे कानून की तरह लागू किया जा रहा है। लार्ड एटकिन के ये शब्द भुला दिये गये हैं कि एक साधारण व्यक्ति को न्याय की आलोचना करने का अधिकार नहीं दिया गया। आज 1971 के अवमानना कानून में सुधार की बड़ी और ज्वलंत आवश्यकता है। अवमानना के मापदण्डों और मानदण्डों को बदलना जरूरी है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार भी है। मुकदमे सालों लम्बित रहते हैं और इन सबके विरूद्ध कोई आवाज नहीं उठा सकता क्योंकि अवमानना का डर है। अवमानना का कानून एक ऐसा कानून है जिसका जितना कम उपयोग हो, अच्छा है। इसका ज्यादा उपयोग स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन ही होगा।