वर्तमान समय में समान शिक्षा की प्रासंगिकता

Artical by :- CA विजय कुमार शर्मा 


कोई भी देश सामाजिक आर्थिक मोर्चे पर अग्र पंक्ति में खड़ा दिख सकता है यदि वहाँ की शिक्षा प्रणाली सभी वर्गों के लिए एवं सुलभकारी हो और शिक्षा का विकास इस ढंग से किया जाना हो जिससे राष्ट्रीय उत्पादकता में वृद्धि हो एवं सामाजिक व राष्ट्रीय एकता की भावना बढे, आधु, निकीकरण की गति में तेजी आए तथा सामाजिक नैतिक मूल्यों का विकास हो। कोठारी आयोग (1964-66) ने यह माना है कि किसी भी देश का भविष्य उसकी कक्षाओं में पलता है



 


लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आजादी के 71 वर्षों के बाद भी क्या सभी को समान शिक्षा मिल रही है। इस देश में शिक्षा के मामलों में स्कूल की उपलब्धता, गुणवत्ता और सभी के लिए समान अवसरों का होना हमेशा से चिंता का विषय रहा है। देश की सामाजिक बनावट व आर्थिक श्रेणीबद्धता सभी के लिए एक जैसी शिक्षा के सामने यक्ष प्रश्न रहा है। शिक्षा हमेशा स्तरीय साँचों में बटी रही जो देश के सामाजिक संरचना में अंतर्निहित मजबूत वर्गीय विभाजन को अभिव्यक्त करता रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में दोहरी शिक्षा व्यवस्था लागू है। साधन संपन्न यहाँ तक कि मध्यम वर्ग भी जिनके पास कुछ अतिरिक्त आमदनी है, अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने यह विचार दिया था कि समान शिक्षा की व्यवस्था के लिए अधिकारियों, नेताओं और सभी बड़े पदों पर आसीन संपन्न लोगों के बच्चों को एक ही स्कूल में पढ़ना चाहिए। समान शिक्षा की बात भारतीय संविधान की नीति निर्देशक सिद्धांतों में दर्ज की गयी है। हालांकि संविधान निर्माण सभा के अनेक सदस्य स्वतः बाबा साहब अंबेडकर का मानना था कि समान शिक्षा का अधिकार मुल अधिकार में शामिल हो और न्यायिक आदेश से लागू होने की व्यवस्था हो। महात्मा गांधी ने तो बुनियादी तालीम के नाम से शिक्षा की कल्पना की थी। जिसमें शिक्षा समान होती, भारतीय भाषा में होती और ज्ञान के साथ-साथ चरित्रा एवं रोजगार का भी जरिया होती परंतु गांधी के देश में ही गांधी की शिक्षा असफल रही। 1950-60 के दशक में लोहिया जी ने समान शिक्षा के सवाल को तेजी के साथ मुखरित किया कि जो शिक्षा वर्ग विभेदक आधार खडा करती है, उसे बंद होना चाहिए। इसलिए लोहिया ने नारा दिया था 'राष्ट्रपति हो या चपरासी की संतान सबकी शिक्षा एक समान ।' लोहिया जी शायद इस बात को जानते थे कि यदि अफसर और चपरासी बड़ी जाति एवं दलित का बेटा एक ही स्कूल में साथ-साथ पढ़ेंगे तो भेदभाव मिटेगा।