जीत तो है बड़ी, आगे चुनौतियां कड़ी ...

अमित कुमार


हालिया राज्य चुनाव परिणामों का विश्लेषण करें तो कुल मिलाकर कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि हार के बावजूद भाजपा ने भले सरकार खो दी हो लेकिन राजनीतिक धरातल से कांग्रेस, भाजपा को बिलकुल बेदखल नहीं कर पायी है । वहीं भाजपा को जनता ने सरकार से बाहर करके एक करारा झटका जरूर दिया है लेकिन जनता ने भाजपा को बिलकुल खारिज कर दिया हो ऐसा बिलकुल भी नहीं है । शायद यही कारण रहा कि सभी राज्यों में कुछ प्रत्याशियों के बीच जीत हार बेहद कम मतों के अंतर से हुई है । खासकर मध्यप्रदेश में हारने के बावजूद भाजपा और कांग्रेस के प्राप्त मतों का अंतर बहुत ज्यादा नहीं रहा लेकिन यह अलग बात रही कि कांग्रेस को सीटें अधिक मिली है । शायद यही कारण रहा कि सरकार बनाने हेतु कांग्रेस को उस बसपा और सपा की जरूरत पड़ी जिससे चुनाव से पहले तालमेल पर कांग्रेस बिलकुल उदासीन रही थी और दोनों ही दलों ने सार्वजनिक रूप से इसपर तल्ख बयान जिससे दिया था। हालांकि कांग्रेस खुशकिस्मत रही कि वक्त की निभाई जरूरत और आने वाले लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की कवायद को ध्यान में रखते हुए मायावती ने कांग्रेस को समर्थन देने में बिलकुल देर नहीं की और इससे पहले कि भाजपा अपने राजनीतिक दिमाग के घोड़े दौड़ाती , मायावती ने अपने विधायकों को दिल्ली बुलाने सहित कांग्रेस को समर्थन का एलान कर दिया । 



निस्संदेह कांग्रेस कई वर्षों से जिसकी तलाश में थी और एक के बाद एक हार से जो कांग्रेस हाशिए पर जा रही थी उसे एक बड़ी जीत संजीवनी के तौर पर मिली है । भाजपा के लिए भी इस झटके से उबरना आसान नहीं होगा लेकिन इस जीत के बाद कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौतियां है जिससे पार पाना कांग्रेस के लिए भी आसान नहीं होगा I 


जीत के बाद लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस के समक्ष सबसे बड़ी जो चुनौती है संगठन को संगठित रखने की चुनौती क्योंकि मध्यप्रदेश और राजस्थान दोनों ही प्रदेशों में अनुभव बनाम युवा प्रतिनिधित्व का दो अलग अलग खेमा खुलकर सामने आया है । हालांकि कांग्रेस ने राजस्थान में अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री और सचिन पायलट को उप-मुख्यमंत्री का पद देकर इस खेमाबंदी को पाटने की सफल कोशिश की है लेकिन यह सभी जानते है कि सचिन पायलट युवा पीढ़ी के अगुआ हैं और वे किसी भी पद पर रबर स्टॉप बनकर नहीं रह सकते है।


यह बात और भी महत्त्वपूर्ण है कि सचिन पायलट ने प्रदेश अध्यक्ष का कार्यभार संभालने के बाद न सिर्फ संगठन के स्तर पर बेहत. रीन काम किया है अपितु वो सदैव मतदाताओं से भी व्यकिगत रूप से जुड़े हुए रहें है ऐसे में अशोक गहलोत अपने अनुभव से इस युवा के साथ कैसे तालमेल बैठा पाते है यह देखने वाली बात होगी । मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस ने अनुभव को तरजीह दी है तथा बागडोर कमलनाथ को सौंप दी है लेकिन वहां युवा कद्दावर नेता ज्योतिरादित्य सिंधियाँ को कांग्रेस का एक खेमा मुख्यमंत्री बनाने पर अड़ा हुआ था अर्थात कमलनाथ को भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ तालमेल बनाकर चलने की चुनौती है क्योंकि यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा का खेल बिगाड़ने में भी बागी नेताओं का बहुत योगदान रहा है।


कांग्रेस की नयी सरकार के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ी होने वाली है, प्रदेश की आर्थिक हालत का सही जायजा लिए बिना किया गया लोक लुभावन वादा जिससे कांग्रेस को सत्ता तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । जिसमें सबसे बड़ा वादा है किसानों की कर्ज माफी का  सूत्र बताते है कि कांग्रेस के चुनाव में 10 दिन अंदर कर्ज माफी के वादा के बाद अधिक्तर किसानों ने अपना फसल बेचना ही बंद कर दिया क्यों कि उन्हें पता था फसल विक्रय के बाद जो उन्हें न्यूनतम मूल्य प्राप्त होगा वह सरकार द्वारा बैंक में जमा कर दिया जाएगा और बैंक उसमें से कर्ज की किस्त काट लेगा ।



अगर अकेले मध्यप्रदेश की बात करें और वित्त विभाग की आंकड़े की भी माने तो 160871.9 करोड़ का कर्ज मध्यप्रदेश सरकार पर बकाया है । ऐसे में किसानों की कर्ज माफी यानी तकरीबन 62 लाख किसानों का 70 हजार करोड़ का कर्ज माफ करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा । शायद यही कारण रहा कि कमलनाथ ने शपथ ग्रहण के बाद किसान कर्ज माफी की घोषणा तो की लेकिन उसका दायरा सिर्फ दो लाख तक ही सीमित रखा जो कहीं न कहीं किसानों के आंखों में धूल झोकने सरीखा निर्णय रहा ।


वहीं छत्तीसगढ़ में किसानों की कर्ज माफी सहित प्रत्येक परिवार को 1 रू की दर से 35 किलो चावल, घरेलू खपत हेतु बिजली का बिल आधा , 10 लाख बेरोजगार युवाओं को मासिक अनुदान , 60 वर्ष की आयु से अधिक वाले किसान को मासिक पेंशन तथा प्रत्येक नक्सली प्रभावित पंचायत को सामूदायिक विकास कार्य हेतु 1 करोड़ रूपया देने जैसे लुभावन वादों को यथार्थ के धरातल पर अमली जामा पहनाना बिलकुल भी आसान नहीं होगा ।