पुलिसकर्मी की पत्नी की कलम से

कल बाटला हाउस मूवी देखने गए थे। 2008 में दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम ब्लास्ट के बाद पुलिस की जाँच में संदेह के घेरे में आये एक लड़के की लोकेशन बाटला हाउस मिली थी। उसी को पकड़ने गयी पुलिस पर अचानक से हुई फायरिंग पर जवाबी कारवाई में हुए एनकाउंटर को फर्जी बना कर एक जाबांज ऑफिसर की शहादत को उनके अपने विभाग द्वारा की गई हत्या बता दिया जाता है। दिल्ली पुलिस पर लगे आरोपों से सम्बंधित जाँच और इस पूरे घटनाक्रम पर  अति नाटकीयता व सिनेमाईकरण से बचते हुए निखिल आडवाणी ने बेहद शानदार मूवी बनाई है। जिस समय यह घटना हुई थी, हमारे घर में होने वाली हर रोज की चर्चा का विषय थी। उन लड़कों के सूत्र उत्तर प्रदेश के जिस जगह से जुड़े थे वहाँ से विनोद ने अपनी नौकरी की शुरुआत की थी। एक वर्ग बहुल उस क्षेत्र के लड़कों का ब्रेनवाश कैसे किया जाता है, उन्हें आतंक के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जाता है यह सब उनके घरवालों को सच में नहीं मालूम होता है। वहाँ के लोगों की मनःस्थिति तथा आर्थिक स्थिति के बारे में फिर कभी लिखूँगी। आज जिस विषय पर लिखना चाहती हूँ वो मेरा अपना विषय है, मेरी और पूरे पुलिस परिवार की अपनी समस्या! वो जिंदगी जिसे मैंने बचपन में भी देखा था लेकिन पिछले उन्नीस सालों से जी रही हूँ।


    मूवी की शुरुआत एसीपी संजय और उनकी पत्नी की बातचीत से होती है। काम के बढ़ते दबाव व पति की अतिव्यस्तता के कारण एक पत्नी के मन में चलती उथल-पुथल! सबकुछ वैसा ही तो था हमारे जीवन में.... घटना कहीं भी हो उसका सीधा असर उससे जुड़े हर पुलिस वाले ( सीनियर ऑफिसर से लेकर कॉन्स्टेबल) पर पड़ता है। आपने अभी नाश्ते का पहला निवाला मुँह में डाला होता है कि सेट पर एक वारदात की खबर आती है और आप बचा नाश्ता छोड़कर घटनास्थल पर पहुँच जाते हैं। हो सकता है फिर पूरे दिन चाय के अलावा आपको कुछ भी न मिले। ठिठुरती ठंड में रात 3 बजे आप गश्त लगा कर घर आते हैं और जैसे ही रजाई में पैर डालते हैं आपके मोबाइल पर एक कॉल आता है। फोन उठाने से पहले ही आप समझ जाते हैं कि इतनी रात को आया कॉल किसी घटना से ही सम्बद्ध होगा और आप बात करते-करते ही फिर से अपनी वर्दी पहनने लगते हैं। ये महज एक या दो दिन ही नहीं होता। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति अक्सर ही होती रहती है।    


     हो सकता है आप अपना काम लेकर जिस पुलिस वाले के पास गए हों वो खुद ही अपनी पैतृक जमीन पर हो रहे कब्जे को रोकने न जा पा रहा हो, बहन की शादी के लिए माँगी पाँच दिन की छुट्टी एक दिन में बदल गयी हो या  तीन दिन पहले पैदा हुए अपने बच्चे को ही अब तक देखने ना जा पाया हो! हो सकता है अपनी मानसिक परेशानियों के कारण  बातचीत के दौरान  अपनी वाणी की खिन्नता पर नियंत्रण न कर पाया हो! लेकिन यही उसकी सबसे बड़ी गलती हो जाती है। इसी गलती पर आप उसे कुछ भी बोल सकते हैं।


 


आप कह सकते हैं कि मैं इस विषय पर बायस्ड हो रही हूँ लेकिन यकीन मानिए जब मूवी के एक सीन जिसमें एक पुलिस ऑफिसर अपने शहीद इंस्पेक्टर के निधन की सूचना उनकी वाइफ को " वो बहुत बहादुर ऑफिसर थे" कह कर देता है तो मेरे आँखों के सामने मेरी उन सभी दोस्तों का चेहरा घूम गया जिनको-जिनको ये खबर सुनाई गई थी। मेरे सामने दो बेटियों की रोती हुई माँ खड़ी थी जिनके बहादुर पति एक नामी अपराधी को पकड़ कर लाते समय एक दुर्घटना के शिकार हो गए, वो दो जोड़ी सूखी आँखें तैर गयीं जो अब तक जवाहर बाग में शहीद हुए अपने पति के कातिलों का इंसाफ मांग रही हैं।  डिप्रेशन की गोलियाँ खाती कई पुलिस ऑफिसर्स की पत्नियाँ कल रात से ही मेरे अगल-बगल बैठ कर कहने लगीं कि हमारा दर्द तो कभी किसी ने देखा ही नहीं ! सीमा पर ड्यूटी कर रहे जवानों और ऑफिसर्स की पत्नियों का अकेलापन सब समझ जाते हैं लेकिन अपने पति के साथ रहते हुए भी अकेलापन झेलती पुलिस परिवार की औरतों का दर्द किसी किताब में नहीं लिखा जाता।


      आप कह सकते हैं ये पुलिस का काम है,इसकी उन्हें तनख्वाह मिलती है लेकिन दोस्तों तनख्वाह उन्हें बारह घण्टे के काम की मिलती है चौबीस घण्टे के काम और समाज व मीडिया से गाली खाने की नहीं मिलती है। आप सोच भी नहीं सकते हैं कि रात को दो बजे एक औरत का पति यह कह कर घर से निकलता है कि तुम सो जाओ मुझे आने में सुबह हो जाएगी और सुबह उसे एक खबर मिलती है कि साहब को गोली लग गयी है। एक साल के बच्चे को चिपकाए बिलखती उस औरत को ये समझ ही नही आता कि गोली कैसे लग गयी क्योंकि पुलिस में रखी जाने वाली गोपनीयता के तहत उसने अपनी पत्नी तक को नहीं बताया था कि वो एक अपराधी नेता के घर रेड डालने जा रहा है।


  एक पुलिस वाले पर काम का इतना दबाव होता है कि केस खुलने पर भी उसके सीनियर उससे पूछते हैं,"केस सही खुला है ना!" रेड में गए पुलिस ऑफिसर के सर पर पत्थर का बड़ा टुकड़ा लगता है। फ़टे सिर पर अपना रुमाल बांधकर वो तब काम करता है जब तक  बेहोश होकर गिर नहीं जाता।


 एक पुलिस ऑफिसर को आक्रोशित भीड़ द्वारा इतना मारा जाता है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसकी टूटी हड्डियों की गिनती लिखी होती है। अकेले उत्तर प्रदेश में इस तरह की इतनी घटनाएँ घटी हैं, जिन पर लिखो तो एक किताब भी कम पड़ जाएगी। इन सबके बावजूद पुलिस का हौसला उसको  मिली वर्दी पहन कर बुलन्द रहता है। 


    घटनाएँ कभी भी पुलिस वालों को बताकर नहीं घटती फिर भी हर घटना की जिम्मेदार सिर्फ पुलिस ही होती है। पुलिस इसी समाज का अंग है यहाँ भी कुछ बुराइयाँ हैं। यहाँ भी व्यक्तिगत स्वार्थ के वशीभूत लोग मानवता भूल जाते हैं लेकिन कुछ कीड़े लगे पत्तों के चलते आप पूरी फसल को खराब नहीं कह सकते।


   पिछले छः महीने में पुलिस वालों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं की चर्चा मीडिया के लिए टी आर पी बढ़ाने वाली न्यूज़ नहीं है लेकिन आप एक बार उस स्थिति की भयावहता सोच कर देखिए! क्या होगा उस समाज का  जब पुलिस की पेट्रोलिंग करती गाड़ियाँ, वर्दी में खड़े जवान आपको सड़क पर नहीं दिखाई देंगे! जहाँ गलत हो वहाँ विरोध अवश्य करिए लेकिन जो पुलिस आपकी सेवा में चौबीस घण्टे की नौकरी कर रही है उसे बदले में थोड़ा सम्मान तो दे ही सकते हैं। किसी भी दुर्घटना पर ''शेम पुलिस'' या "पुलिस मुर्दाबाद" की तख्तियाँ लटका कर उस पर बेवजह का दबाव बढ़ाने की जगह उसे सही तरीके से काम करने का समय दीजिये।


      मुझे एक पुलिस ऑफिसर की पत्नी व पुलिस आफिसर होने पर गर्व है और यही गर्व मुझे इसके साथ मिले तनाव को सहने की हिम्मत देता है।।    


                                                                                             ।।जय हिंद।।